शिवलिंग के बारे में समझने के लिए पहले हमें खुद को समझना होगा कि वास्तव में हम कौन हैं?
स्वयं की पहेली हल होते ही, स्वयंभू की पहेली का भी हल निकल आएगा।
पहले स्वयं को समझते हैं :
जब भी आप किसी को अपना परिचय देते हैं, तो क्या कहते हैं ! कि मेरा नाम, मेरे पिताजी का नाम, मेरा घर, मेरा स्थान यहाँ-यहाँ है। तो आप देखें कि अपने जो भी परिचय दिया है वह 'मेरा' का दिया, लेकिन आप (मेरा शरीर, मेरा घर, मेरा परिवार) 'मेरा' नहीं हैं। आप इससे अलग मैं हैं, अर्थात इसके मालिक इससे अलग। उदहारण के लिए मैं आत्मा हूँ, यह मेरा (शरीर, वस्तु, व्यक्ति व पदार्थ) है। मैं इसका प्रयोग करने वाली मालिक एक शक्ति हूँ, ऊर्जा हूँ, जिसे हम आत्मा कहते हैं। यही ऊर्जा आपसे कह रही है कि आप आत्मा हैं शरीर नहीं। आपके मुख से यही निकलता है कि मेरे सिर में दर्द है, मेरे पैर में दर्द है, जिससे सिद्ध होता है आप इससे भिन्न हैं। आप आत्मा हैं न कि शरीर। वही आत्मा जब शरीर से निकल जाती है तो उसे अर्थी कहते हैं अर्थात एक ऐसा रथ (शरीर) जिसमें रथी (आत्मा) नहीं है। आत्मा को ही रूह, प्राण आदि नामों से जानते हैं।
आत्मा अति सूक्षम ज्योति बिंदु स्वरुप होती है जो मनुष्य शरीर के भृकुटि अकाल तख़्त पे बिराजमान होती है तथा यही से पुरे शरीर का संचालन करती है। आप जब भी किसी की तारीफ करते हैं तब भी आप शरीर का नाम नहीं लेते, आप हमेशा कहते हैं कि आप महान आत्मा हो, पुण्यात्मा हो, धर्मात्मा हो, देवात्मा हो आदि-आदि। इसका अर्थ यह हुआ कि आप गुणों को आत्मा के साथ जोड़ रहे न कि शरीर के साथ। इसलिए शरीर एक माध्यम है आत्मा को प्रदर्शित करने का। आज पूरा विज्ञान अंधकार में डूबा हुआ क्योंकि वो खुद को शरीर समझने की भूल करता है।
कैसे पहचाने परमात्मा को? :
भगवान, ईश्वर, परमात्मा, अल्लाह, खुदा, वाहेगुरु, गॉड आदि नामों से तो आप परिचित होंगे ही, लेकिन इन नामों के आधार से हम परमात्मा को सही रूप से पहचानने में आज भी असमर्थ हैं। परमात्मा के बारे में आज भी दुनिया में इतने मतभेद हैं कि सही सत्य विलुप्त सा हो गया है। इसलिए शायद आज ईश्वर के नाम पर मनुष्य अनेक धर्मों में बंट गया।
आज जब भी कोई ध्यान लगाने बैठता है तो परमात्मा का सत्य ज्ञान न होने के कारण उनकी यही शिकायत रहती है कि मन तो परमात्मा में लगता ही नहीं। अरे भाई लगेगा कैसे! आपको जब पता ही नहीं है कि मन को कहाँ लगाना है, तो कैसे लगेगा?
परमात्मा को सही रूप से पहचानने के लिए हमारे पास पांच कसौटी है :
➤ जो सर्वधर्म, सर्वमान्य हो- सबसे पहली कसौटी परमात्मा के बारे में यही है कि वह सर्व मान्य हो अर्थात सभी उसको मान्यता देते हों। सभी धर्म उस एक को ही मानते हों। लेकिन आज के समय में अनेक मत-मतान्तर होने के कारण परमात्मा को लेकर भेद मतभेद बहुत है।
➤ जो सर्वोपरि हो- यहाँ सर्वोपरि का अर्थ है जो सबसे परे हो। मनुष्य आत्मा जन्म-मरण के चक्र में आती है और कर्म करती है। लेकिन परमात्मा जन्म-मरण के चक्र से न्यारा है अर्थात परे है। वो पाप-पुण्य, देह और देह के संबंधों में नहीं आता अर्थात सुख-दुःख के चक्र में नहीं आता।
➤ जो सर्वोच्च हो- सर्वोच्च से यहाँ मतलब यह है कि उससे ऊँची शक्ति या उसके ऊपर कोई न हो। जिसका कोई माता-पिता न हो, कोई गुरु न हो। जो सबका माता-पिता है, जो सबका गुरु है उसे परमात्मा कहा जा सकता है।
➤ जो सर्वज्ञ है- सर्वज्ञ का अर्थ है जो सब कुछ जानता हो। जिसके पास संसार के आदि-मध्य-अंत का ज्ञान हो। वो परमात्मा हो सकता है। भूत-भविष्य-वर्तमान के सम्पूर्ण ज्ञाता होने के कारण ही परमात्मा को त्रिकालदर्शी कहा जाता है।
➤ जो शक्तियों और गुणों में अनंत हो- परमात्मा के बारे में कहा जाता है कि उनकी महिमा अपरम-अपार है। उनकी गुणों के कारन उनको गुणों का सागर कहा जाता है, सर्वशक्तिवान कहा जाता है।
अगर कोई उपरोक्त पांचों कसौटियों पर खरा उतरता है तो वह निश्चित ही भगवान है।
परमात्मा का सत्य परिचय :
हम यहाँ पर साक्ष्य के रूप में परमात्मा के परिचय हेतु शास्त्रगत विवरणों को देखेंगे क्योंकि सभी की इसके लिए भावनाएं हैं। विभिन्न धर्मों के धर्मग्रंथों में परमात्मा का सत्य परिचय उल्लेखित है। उसे हम सझने का प्रयास करेंगे।
सर्वशास्त्रमयी शिरोमणि श्रीमद् भगवद् गीता में परमात्मा के बारे में जो सत्य परिचय लिखा है वो है-
कि मैं निराकार हूँ, मेरा रूप ज्योतिर्बिंदु रूप है, प्रकाश स्वरुप है। मैं अभोक्ता हूँ, अकर्ता हूँ, अजन्मा हूँ।
निराकार का अर्थ यहाँ यह है कि उनका अपना कोई शरीर नहीं है। निराकार की तुलना यहाँ मनुष्य रूपी शरीर से की गई है। उनका रूप ज्योतिर्बिंदु स्वरुप है। वो प्रकाश स्वरुप हैं तथा कर्म-अकर्म अर्थात जन्म-मरण से न्यारे हैं। आपको याद होगा हम ऊपर देख चुके हैं की हम कौन हैं? मैं एक आत्मा हूँ और अपने शरीर रूपी रथ को चलाने वाली रथी हूँ। सभी धर्म ये स्वीकार करते हैं की हम परमात्मा की संताने हैं तो क्या शरीर के हिसाब से यह हो पाना मुमकिन है? क्योंकि शारीरिक पिता तो सबका अपना-अपना है ना! चूँकि हम आत्माएं हैं और हमारा स्वरुप अति सूक्षम ज्योतिर्बिंदु स्वरुप है तो हमारा जो पिता है उसका स्वरुप भी ज्योतिर्बिंदु स्वरुप ही है लेकिन वो गुणों, शक्तिओं और ज्ञान में सर्वोच्च होने के कारण वो परमात्मा कहलाते हैं। हम आत्माएं जन्म-मरण के चक्र में आती हैं, वो नहीं आते।
परमात्मा के बारे में सभी धर्मों कि क्या मान्यता है?
हिन्दू धर्म के सर्वशास्त्रमयी शिरोमणि गीता के अनुसार व अन्य कई ग्रंथों के अनुसार परमात्मा को प्रकाश स्वरुप ही माना जाता है। मुस्लिम धर्म भी खुदा को निराकार व नूरे-ए-इलाही अर्थात प्रकाश स्वरुप ही मानता है। ईसाई धर्म के लोग भी God is Light कहते हैं। जो भी धर्म में चाहे वो गुरु नानक देव जी हों, चाहे पैगम्बर मोहम्मद साहब हों या ईसा मसीह हों, सभी ने परमात्मा को ज्योति स्वरुप में ही देखा और जाना।
पुरे भारत वर्ष में मुख्य रूप से बारह ज्योतिर्लिंगम की पूजा की जाती है। यहाँ लिंग का अर्थ भी लोग गलत तरीके से लेते हैं। उनका कहना है कि लिंग अर्थात सेक्स ऑर्गन, लेकिन ये सरासर गलत है और कुछ मूर्खों और गन्दी मानसिकता के लोगों द्वारा फैलाई गई एक अफवाह है। जैसे हम कहते हैं पुलिंग, स्त्रीलिंग, नपुंसक लिंग, उभयलिंग। यहाँ लिंग का अर्थ है चिन्ह (प्रतिक) या लक्षण। जैसे स्त्रीलिंग अर्थात जिसके अंदर स्त्रियों वाले लक्षण हो, पुलिंग अर्थात जिसके पुरुषों वाले लक्षण हों। कई ऐसे निर्जीव चीजें हैं जिनमें कोई सेक्स ऑर्गन न होने के बावजूद भी हम उन्हें बोलचाल की भाषा के अनुसार स्त्रीलिंग-पुलिंग में बाँट देते हैं। जैसे कि कलम, कमीज, कपास ये सब स्त्रीलिंग हैं। ठीक उसी तरह शिव अर्थात कल्याणकारी और लिंग अर्थात लक्षण। जो सदैव कल्याणकारी हैं, उनके यादगार को शिवलिंग के रूप में पूजा जाता है। शिवलिंग को ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है अर्थात कल्याणकारी शिव ज्योति स्वरुप हैं। उनके मंदिरों के नाम से भी उनके गुणों व कर्तव्यों को समझा जा सकता है।
जैसे उत्तर में अमरनाथ (जो सदैव अमर है व अमर आत्माओं के नाथ हैं), दक्षिण में रामेश्वरम (जो राम के भी ईश्वर हैं), पूर्व में काशी विश्वनाथ (वो इस पुरे विश्व के नाथ हैं) तथा पश्चिम में सोमनाथ (जो ज्ञान के सोमरस प्रदान कर चेतना विहीन आत्माओं में भी चेतना भर देते हैं) आदि। यहाँ ध्यान देने की बात है कि जितने भी उनके नाम हैं सब उनके गुणों के आधार से है जैसे- महाकालेश्वर, पापकटेश्वर, विश्वेश्वर, रामेश्वर, बबुलनाथ आदि।
शिवलिंग की रचना एवं बनावट :
निराकार ज्योति स्वरुप परमात्मा की आराधना एवं ध्यान हम मनुष्य आत्माओं के लिए सहज नहीं था। तो एक ऐसी आकृति की निर्माण की गई जिससे हम आसानी पूर्वक उनकी पूजा अर्चना कर सकें। शिवलिंग की संरचना भी पुरे अर्थ के साथ की गई है। आइये इसके संरचना को समझे-
शिवलिंग का सबसे ऊपरी हिस्सा जो अंडाकार आकृति होती है, जिसपे त्रिपुण्ड लगा होता है वो पुरे ब्रह्माण्ड को दर्शाता है तथा उसपे लगा त्रिपुण्ड तीन लोक (परमधाम, सूक्ष्मवतन, स्थूल वतन) का यादगार है एवं त्रिपुण्ड के बीच लगा छोटा गोल तिलक त्रिलोकीनाथ सूक्षम ज्योतिर्बिंदु, प्रकाश स्वरुप, सर्वशक्तिवान, सदा कल्याणकारी शिव का यादगार है। नीचे का गोल हिस्सा जो चक्र की भांति है वो सृष्टि चक्र का यादगार है। इस दुनिया का एक निश्चित समय बाद पुनरावर्तन होते रहता है। नीचे के गोल हिस्से में एक जगह छोड़ा जाता है जहाँ से पानी निचे गिरता है, ये संगमयुग का यादगार है।
सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग के बाद एक और युग आता है जो युग परिवर्तन का होता है। इसी युग में ही भगवान अवतरित होकर कलयुग का विनाश करा सतयुग या स्वर्णिम युग की स्थापना करते हैं। सृष्टि के आदि और अंत के बीच के समय को संगम युग कहते हैं। इसके याद में ही शिवलिंग के निचले भाग जो चक्र के आकार जैसा है को बिच में एक निश्चित जगह पर एक स्थान छोड़ दी जाती है जहाँ से पानी नीचे गिरता है। शिवलिंग से सम्बंधित और भी कई रहस्य हैं जो आगे स्पष्ट करते रहेंगे।
आशा करता हूँ आप पूरी तरह से समझ गए होंगे। अगर आपको कोई प्रश्न हो तो अपने नजदीकी ब्रह्माकुमारीज़ सेंटर से संपर्क करें।